4464005860401745 किन्नरों के भगवान कौन हैं और वह किसके पुत्र थे? किन्नर की 18 रोचक बातें वनिता कासनियां पंजाब द्वारा किन्नरों के बारे में अनेकों किदवंतियाँ हैं। दुनिया में बहुत से लोग हिजड़ों के बारे में बहुत गहराई से जानना चाहते हैं। किन्नर दो शब्दों से मिलकर बना है... किं+नर’ से स्पष्ट है, उनकी योनि और आकृति पूर्णत: मनुष्य की नहीं मानी जाती। यक्षों और गंधर्वों की तरह वे नृत्य और गान में दक्ष इन्हें महादेव का भक्त और गायक समझा जाता है। भोलेनाथ के शाप से बने हिजड़े मान्यता है कि किन्नरों की माँ अरिष्टा थी, जो सदैव सबका अरिष्ट या बुरा सोचती थी और पिता महर्षि और कश्पय थे। द्वेष, दुर्भावना ओर बुराई करने से अगले जन्म किन्नर बनना पड़ता है आज भी पुराणों की मान्यता है कि-बुराई करने, बुरा सोचने तथा दुर्व्यवहार करने से अगले जन्म में किन्नर बनना पड़ता है। भोलेनाथ ने इनकी माँ अरिष्टा को गन्दी, निगेटिव सोच की वजह से इनके बच्चों को हिजड़े होने का शाप दिया था। तथा पश्चाताप हेतु इन्हें धरती पर जन्म लेना पड़ा। हिजड़े जीवन भर शुभ-मङ्गल कार्य एवं शिशु जन्म के समय बलैया ले-लेकर परिवार के सभी सदस्यों को दुआएं देते हैं। इसके फलस्वरूप, जो न्योछावर मिलती है, उसे पुण्यकार्यो में खर्च करते हैं। यदि ये अड़ जाएं, तो नँगा नाच करने से नहीं चूकते। ग्रन्थों में वर्णन है कि- किन्नरों का यह अंतिम जन्म होता है। शतपथ ब्राह्मण (७:५:२:३२) में अश्वमुखी मानव शरीरवाले किन्नर का उल्लेख है। आम लोगों की पांच इन्द्रिय जागृत रहती हैं लेकिन हिजड़ों की छठी इन्द्रिय चेतनायुक्त होने से उन्हें छक्का कहते हैं। किन्नर मोह-माया से दूर इनमें बहुत ज्यादा बेशर्मी पाई जाती है, जो अन्य लोगों के लिए कर पाना असंभव है। शादी-विवाह एवं शुभ कार्यों के समय हिजड़ों की हाजिरी क्यों हैं। जाने किन्नर के धर्म से जुड़े किस्से ऐसा मानते हैं कि- हिजड़ों के ताली बजाने से जो स्पंदन या वायब्रेशन होता है, उससे घर की नकारात्मक/निगेटिव ऊर्जा दूर हो जाती है। अमृतम पत्रिका से साभार...इस ब्लॉग में हिजड़ों के बारे में बहुत ही संक्षिप्त जानकारी दी जा रही है- वृहनलला, हिजड़े या किन्नरों का इतिहास..सन्दर्भ ग्रन्थ- भविष्यपुराण, महाभारत, गरुड़ पुराण, कठोपनिषद आदि 8 ग्रन्थ के अनुसार यह अति प्रतिष्ठित व महत्वपूर्ण आदिम जाति है जिसके वंशज वर्तमान जनजातीय जिला किन्नौर के निवासी माने जाते हैं। संविधान में भी इन्हें किन्नौरा और किन्नर से संबोधित किया गया है। पौराणिक कथाओं में किन्नर या किंपुरुष देवताओं की एक योनि मानी जाती थी। 5 पांडवों में से एक अर्जुन को भी हिजड़ा बनना पड़ा था। किन्नर देश’ और ‘हिमाचल’ नामक पुस्तक में उल्लेख है कि-किन्नर कैलाश, मणि महेश एवं मानसरोवर की खोज सर्वप्रथम किन्नरों ने ही की थी। हिमालय का पवित्र शिखर कैलाश किन्नरों का प्रधान निवासस्थान था। यहीं हिमवंत एवं हेमकूट क्षेत्रों में बसनेवाली मानव जाति, जो ना स्त्री होते है, ना पुरुष। दरअसल ये लिंग या योनि रहित प्राणी हैं। बौद्ध साहित्य में किन्नर की कल्पना मानवमुखी पक्षी के रूप में की गई है। मानसार में किन्नर के गरुड़मुखी, मानवशरीरी और पशुपदी रूप का वर्णन है। सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

🚩🪴गीता ज्ञान🪴🚩शकुनी का सबसे बड़ा रहस्य जो महाभारत युद्ध का मुख्य कारण बना By वनिता कासनियां पंजाब शकुनीकुछ लोग शकुनी को कौरवो का हित चाहने वाला मानते हैं परन्तु आज आप जानेंगे कि वह शकुनी ही था जिसने दोनों पक्षों को महाभारत के युद्ध में मरने के लिए झोंका था । वो शकुनी था जिसने कुरुवंश के विनाश की सपथ ली थी । वो शकुनी था जिसने पांडवों और कौरवों दोनों के ही साथ विश्वासघात किया । आखिर क्यों रची उसने कुरुवंश को ध्वस्त करने की साजिश और किस तरह दिया उसने अपनी साजिश को अंजाम । सारा कुछ आपको बताऊंगी बस बने रहिये अंत तक गीता ज्ञानके साथ ।मित्रो वैसे तो महाभारत युद्ध के लिए कई पात्रों को जिम्मेदार माना जाता है परंतु अधिकतर लोग कौरवों के मामा शकुनी को इस भयानक युद्ध के लिए उत्तरदायी मानते हैं । ये तो हम सभी जानते हैं कि मामा शकुनी बहुत ही बड़ा षड़यत्रकारी, क्रूर, कुटिल बुद्धि और चौसर खेलने में माहिर था ।शास्त्रों की मानें तो महाभारत काल में चौसर यानी द्युतक्रीड़ा में शकुनी को कोई भी नहीं हरा सकता था । लेकिन क्या आप जानते हैं कि आखिर उसके चौरस के पासों में ऐसा क्या था जिससे वह खेल में अजय माना जाता था?शकुनी कुरुवंश का विनाश क्यों करना चाहता था?शकुनी का वह सपना जो कभी पूरा नहीं हुआधर्मग्रंथों में वर्णित एक कथा के अनुसार शकुनी और उसका परिवार गांधारी से बहुत ज्यादा प्रेम करता था । वह उसे दुनिया की सारी खुशियां देना चाहता था । गांधारी शिव जी की भक्त भी थी । उनकी साधना से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें सौ पुत्रों का वरदान दिया था ।इस बात का पता चलते ही भीष्म पितामह ने नेत्रहीन धृतराष्ट्र के लिए राजा सुबाला से गांधारी का हाथ मांग लिया परंतु वह इस बात से क्रोधित हो गया । उसने अपने पिता से गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से ना करने की मांग की । किंतु भीष्म पितामह के बल से डरकर राजा सुबाला अपनी पुत्री गांधारी का विवाह अंधे धृतराष्ट्र से करने को तैयार हो गए ।जिसके बाद शकुनी ने मन ही मन कुरुवंश से इसका बदला लेने की ठान ली । मित्रो आपको बता दूँ कि धृतराष्ट से पहले गांधारी का विवाह एक बकरे से हुआ था । दरअसल जब राजा सुबाला ने पंडितों की सलाह पर गांधारी का विवाह सबसे पहले एक बकरे से करवा दिया ताकि बकरे की मृत्यु के बाद उसका दोष ख़त्म हो जाएगा और बाद में गांधारी का विवाह किसी राजा से करवा देंगे ।यह भी पड़ें – अप्सरा के साथ ऋषि ने क्यों किया एक हजार सालों तक भोग विलास?शकुनी को उन पापों की सजा मिली जो उसने कभी किए ही नहीं थेफिर कुछ समय बाद गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से हो गया । उधर विवाह के कुछ दिनों बाद जब धृतराष्ट्र को इस घटना के बारे में पता चला तो उन्हें लगा कि गांधार नरेश ने धोखे से एक विधवा का विवाह मेरे साथ करा दिया है । जिसके बाद धृतराष्ट्र ने राजा सुबाला, उनकी पत्नी और उनके पुत्रों को जेल में डाल दिया ।सुबाल के कई पुत्र थे जिनमें शकुनी सबसे छोटा और बुद्धिमान था । जेल में लोगों को चावल के एक एक दाने खाने के लिए दिए जाते थे । गांधार नरेश सुबाला को लगा कि यदि हम सभी चावल के एक एक दाने खाएँगे तो एक दिन सभीअवश्य ही मर जाएँगे । इस से अच्छा है कि वे लोग अपने हिस्से के दाने भी शकुनी को दे दें ताकि वह जीवित रहे ।जब सभी जेल में थे तब उनके पिता ने शकुनी को चौसर में रूचि देखते हुए और मरने से पहले उससे कहा कि तुम मेरे मरने के बाद मेरी हड्डियों से पासा बनाना । इसमें मेरा दर्द और आक्रोश होगा जो तुम्हें चौसर में कभी नहीं हारने देगा । ये पासे हमेशा तुम्हारी आज्ञा मानेंगे ।अपने पिता की मृत्यु के बाद शकुनी ने उनकी कुछ हड्डियां अपने पास रख ली थी । ऐसा भी कहा जाता है कि पासो में उसके पिता की आत्मा वास कर गई थी, जिसकी वजह से वह पासे शकुनी की ही बात मानते थे ।शकुनी चाहता था अपने परिवार की मौत का बदलाराजा सुबाल के आखिरी दिनों में धृतराष्ट्र ने उसकी अंतिम इच्छा पूछी तो उसने अपने पुत्र शकुनी को आजाद करने को कहा जिसके उपरांत शकुनी आजाद हो गया । बंदीग्रह से बाहर आने के बाद शकुनी अपने लक्ष्य को भूल न जाये इसलिए बंदीग्रह के लोगों ने उसकी एक टांग तोड़ दी । इसी वजह से शकुनी लंगड़ाकर चलता था ।आजाद होने के बाद उसने धृतराष्ट्र से अपने सभी भाइयों और माता पिता के साथ हुए अन्याय का प्रतिशोध लेने के लिए प्रतिज्ञा ली तथा अपनी कुटिल बुद्धि का प्रयोग कर उन्हें महाभारत जैसे भयानक युद्ध में झोंक दिया । अभी तक आपने जाना कि शकुनी के पासो का रहस्य क्या था । अब आपको बताते हैं कि उसने कहाँ इनका इस्तेमाल किया था ।शकुनी ने अपने मंसूबों को किस तरह अंजाम दियाशकुनी जुआ खेलने में पारंगत था । उसने कौरवों में भी जुए के प्रति मोह जगा दिया था । उस की इस चाल मे कारण केवल पांडवों का ही नहीं बल्कि कौरवों का भी भयंकर अंत छुपा था क्योंकि शकुनी ने कौरव कुल के नाश की प्रतिज्ञा ली थी और उसके लिए उसने दुर्योधन को अपना पहला मोहरा बना लिया था ।वह हर समय केवल मौके की तलाश में रहता था जिसके चलते कौरवों और पांडवों के मध्य भयंकर युद्ध छिड़ा और कौरव मारे जाए । जब युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का युवराज घोषित किया गया तब शकुनी ने ही लाक्षाग्रह का षड्यंत्र रचा और सभी पांडवों को लाक्षागृह में जिंदा जलाकर मार डालने का प्रयास किया ।वो किसी भी तरह से दुर्योधन को हस्तिनापुर का राजा बनते देखना चाहता था ताकि उसका दुर्योधन पर मानसिक आधिपत् रहे और वह मूर्ख दुर्योधन की मदद से भीष्म पितामह और कुरुवंश का नाश कर सके ।शकुनी ने ही पांडवों के प्रति दुर्योधन के मन मे वैर जगाया और उसे सत्ता को लेकर लोभी बना दिया । शकुनी अपने पासे से छह अंक लाने में उस्ताद था इसलिए वह छह अंक ही कहता था । हालांकि दोस्तों शकुनी के प्रतिशोध की कहानी का वर्णन वेदव्यास द्वारा लिखे गए महाभारत में नहीं मिलता है ।उसने दुर्योधन के अपमान का फायदा उठायाबहुत से विद्वानों का मानना है कि शकुनी मायाजाल और सम्मोहन की मदद से पासो को अपने पक्ष में पलट देता था । जब पासे फेके जाते थे तो कई बार उनके निर्णय पांडवों के पक्ष में होते थे ताकि पांडव भ्रम में रहे कि पासे सही है ।शकुनी के कारण ही महाराज धृतराष्ट्र की ओर से पांडवो व कौरवों में होने वाले मतभेद के बाद पांडवों को एक बंजर क्षेत्र सौंपा गया था लेकिन पांडवों ने अपनी मेहनत से उसे इंद्रप्रस्थ में बदल दिया । युधिष्ठिर द्वारा किए गए राजसूय यज्ञ के समय दुर्योधन को यह नगरी देखने का मौका मिला ।महल में प्रवेश करने के बाद, दुर्योधन ने इस जल की भूमि को एक विशाल कक्ष समझकर कदम रखा और इस पानी में गिर गया। यह तमाशा देखकर पांडवों की पत्नी द्रौपदी उस पर हंस पड़ी और कहा कि अंधे का पुत्र अंधा था। यह सुनकर दुर्योधन क्रोधित हो गया।दुर्योधन के मन में चल रही बदले की इस भावना को शकुनी ने बढ़ावा दे दिया और इसी का फायदा उठाते हुए उसने पासो का खेल चौसर खेलने की योजना बनाई । उसने दुर्योधन से कहा के तुम इस खेल में जीतकर बदला ले सकते हो । खेल के जरिए पांडवों को हराने के लिए शकुनी ने बड़े प्रेम भाव से सभी पांडु पुत्रों को आमंत्रित किया और फिर शुरू हुआ दुर्योधन वा युधिष्टर के बीच चौसर खेलने का खेल ।पासो के जरिये रखी महाभारत की नीवशकुनी की चौसर की महारत अथवा उसका पासों पर स्वामित्व ऐसा था कि वह जो चाहता था वे अंक पासों पर आ जाते थे और उसकी उंगलियों के घुमाव पर ही पासों के अंक पूर्वनिर्धारित थे । खेल की शुरुआत में पांडवों का उत्साह बढाने के लिए शकुनी ने आरंभ की कुछ पारियों की जीत युधिष्टर के पक्ष में जाने दी ताकि पांडवों में खेल के प्रति उत्साह बढ़ जाए ।जिसके बाद धीरे धीरे खेल के उत्साह में युधिष्टर अपनी सारी दौलत और साम्राज्य जुए में हार गए । अंत में हुआ ये कि शकुनी ने युधिष्ठिर को सब कुछ एक शर्त पर वापस लौटा देने का वादा किया कि यदि वे अपनी पत्नी को दाव पर लगाए । मजबूर होकर युधिष्टर ने शकुनी की बात मान ली और अंत में पांडव यह पारी भी हार गए । इस खेल में द्रौपदी का अपमान कुरुक्षेत्र के महायुद्ध का कारण बना ।इसी तरह की ढेर सारी धार्मिक और ज्ञानवर्धक पोस्ट पड़ते रहने के लिए यहाँ क्लिक करें और व्हाट्सप्प, ग्रुप ज्वाइन करें ।शकुनी अपनी सपथ पूरी होते नहीं देख पाया क्यूंकि महाभारत के युद्ध में वह पहले ही मार दिया गयामहाभारत जैसे भयानक युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार करने में शकुनि ने अहम भूमिका निभाई थी। इसलिए वह सबसे पहले स्वर्ग पहुंचा, क्योंकि उसने अपने परिवार पर किए गए अपने अत्याचारों का बदला लिया और उसी युद्ध में खुद शहीद हो गया ।पोस्ट पसंद आयी हो तो इसे शेयर जरूर करें । दोस्तो जब हमे परीक्षा मे कोई उत्तर नहीं आता तो हम उत्तर को स्वयं रच लेते हैं । अगर परीक्षा मे हमे उत्तर की एक लाइन भी सही से याद रह जाती है तो हम उस लाइन के सहारे पूरा पन्ना भर देते हैं । ठीक इसी तरह शास्त्र का ज्ञान अगर आप ने थोड़ा बहुत भी पढ़ रखा है तो आपके मुश्किल वक्त मे यह आपके काम जरूर आएगा ।इसलिए हम आपसे निवेदन करते हैं कि इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें और परोपकार के इस सुअवसर का लाभ लें । इसके साथ ही मुझे इजाजत दें, हमेसा की तरह अंत तक बने रहने के लिए शुक्रिया ।

🚩🪴गीता ज्ञान🪴🚩 शकुनी का सबसे बड़ा रहस्य जो महाभारत युद्ध का मुख्य कारण बना                                       By वनिता कासनियां पंजाब  शकुनी कुछ लोग शकुनी को कौरवो का हित चाहने वाला मानते हैं परन्तु आज आप जानेंगे कि वह शकुनी ही था जिसने दोनों पक्षों को  महाभारत  के युद्ध में मरने के लिए झोंका था । वो शकुनी था जिसने कुरुवंश के विनाश की सपथ ली थी । वो शकुनी था जिसने पांडवों और कौरवों दोनों के ही साथ विश्वासघात किया । आखिर क्यों रची उसने कुरुवंश को ध्वस्त करने की साजिश और किस तरह दिया उसने अपनी साजिश को अंजाम । सारा कुछ आपको बताऊंगी बस बने रहिये अंत तक गीता ज्ञानके साथ । मित्रो वैसे तो महाभारत युद्ध के लिए कई पात्रों को जिम्मेदार माना जाता है परंतु अधिकतर लोग कौरवों के मामा शकुनी को इस भयानक युद्ध के लिए उत्तरदायी मानते हैं । ये तो हम सभी जानते हैं कि मामा शकुनी बहुत ही बड़ा षड़यत्रकारी, क्रूर, कुटिल बुद्धि और चौसर खेलने में माहिर था । शास्त्रों की मानें तो महाभारत काल मे...

किन्नरों के भगवान कौन हैं और वह किसके पुत्र थे? किन्नर की 18 रोचक बातें वनिता कासनियां पंजाब द्वारा किन्नरों के बारे में अनेकों किदवंतियाँ हैं। दुनिया में बहुत से लोग हिजड़ों के बारे में बहुत गहराई से जानना चाहते हैं। किन्नर दो शब्दों से मिलकर बना है... किं+नर’ से स्पष्ट है, उनकी योनि और आकृति पूर्णत: मनुष्य की नहीं मानी जाती। यक्षों और गंधर्वों की तरह वे नृत्य और गान में दक्ष इन्हें महादेव का भक्त और गायक समझा जाता है। भोलेनाथ के शाप से बने हिजड़े मान्यता है कि किन्नरों की माँ अरिष्टा थी, जो सदैव सबका अरिष्ट या बुरा सोचती थी और पिता महर्षि और कश्पय थे। द्वेष, दुर्भावना ओर बुराई करने से अगले जन्म किन्नर बनना पड़ता है आज भी पुराणों की मान्यता है कि-बुराई करने, बुरा सोचने तथा दुर्व्यवहार करने से अगले जन्म में किन्नर बनना पड़ता है। भोलेनाथ ने इनकी माँ अरिष्टा को गन्दी, निगेटिव सोच की वजह से इनके बच्चों को हिजड़े होने का शाप दिया था। तथा पश्चाताप हेतु इन्हें धरती पर जन्म लेना पड़ा। हिजड़े जीवन भर शुभ-मङ्गल कार्य एवं शिशु जन्म के समय बलैया ले-लेकर परिवार के सभी सदस्यों को दुआएं देते हैं। इसके फलस्वरूप, जो न्योछावर मिलती है, उसे पुण्यकार्यो में खर्च करते हैं। यदि ये अड़ जाएं, तो नँगा नाच करने से नहीं चूकते। ग्रन्थों में वर्णन है कि- किन्नरों का यह अंतिम जन्म होता है। शतपथ ब्राह्मण (७:५:२:३२) में अश्वमुखी मानव शरीरवाले किन्नर का उल्लेख है। आम लोगों की पांच इन्द्रिय जागृत रहती हैं लेकिन हिजड़ों की छठी इन्द्रिय चेतनायुक्त होने से उन्हें छक्का कहते हैं। किन्नर मोह-माया से दूर इनमें बहुत ज्यादा बेशर्मी पाई जाती है, जो अन्य लोगों के लिए कर पाना असंभव है। शादी-विवाह एवं शुभ कार्यों के समय हिजड़ों की हाजिरी क्यों हैं। जाने किन्नर के धर्म से जुड़े किस्से ऐसा मानते हैं कि- हिजड़ों के ताली बजाने से जो स्पंदन या वायब्रेशन होता है, उससे घर की नकारात्मक/निगेटिव ऊर्जा दूर हो जाती है। अमृतम पत्रिका से साभार...इस ब्लॉग में हिजड़ों के बारे में बहुत ही संक्षिप्त जानकारी दी जा रही है- वृहनलला, हिजड़े या किन्नरों का इतिहास..सन्दर्भ ग्रन्थ- भविष्यपुराण, महाभारत, गरुड़ पुराण, कठोपनिषद आदि 8 ग्रन्थ के अनुसार यह अति प्रतिष्ठित व महत्वपूर्ण आदिम जाति है जिसके वंशज वर्तमान जनजातीय जिला किन्नौर के निवासी माने जाते हैं। संविधान में भी इन्हें किन्नौरा और किन्नर से संबोधित किया गया है। पौराणिक कथाओं में किन्नर या किंपुरुष देवताओं की एक योनि मानी जाती थी। 5 पांडवों में से एक अर्जुन को भी हिजड़ा बनना पड़ा था। किन्नर देश’ और ‘हिमाचल’ नामक पुस्तक में उल्लेख है कि-किन्नर कैलाश, मणि महेश एवं मानसरोवर की खोज सर्वप्रथम किन्नरों ने ही की थी। हिमालय का पवित्र शिखर कैलाश किन्नरों का प्रधान निवासस्थान था। यहीं हिमवंत एवं हेमकूट क्षेत्रों में बसनेवाली मानव जाति, जो ना स्त्री होते है, ना पुरुष। दरअसल ये लिंग या योनि रहित प्राणी हैं। बौद्ध साहित्य में किन्नर की कल्पना मानवमुखी पक्षी के रूप में की गई है। मानसार में किन्नर के गरुड़मुखी, मानवशरीरी और पशुपदी रूप का वर्णन है।

 किन्नरों के भगवान कौन हैं और वह किसके पुत्र थे?

किन्नर की 18 रोचक बातें


किन्नरों के बारे में अनेकों किदवंतियाँ हैं। दुनिया में बहुत से लोग हिजड़ों के बारे में बहुत गहराई से जानना चाहते हैं।

किन्नर दो शब्दों से मिलकर बना है... किं+नर’ से स्पष्ट है, उनकी योनि और आकृति पूर्णत: मनुष्य की नहीं मानी जाती। यक्षों और गंधर्वों की तरह वे नृत्य और गान में दक्ष इन्हें महादेव का भक्त और गायक समझा जाता है।

भोलेनाथ के शाप से बने हिजड़े




मान्यता है कि किन्नरों की माँ अरिष्टा थी, जो सदैव सबका अरिष्ट या बुरा सोचती थी और पिता महर्षि और कश्पय थे।

द्वेष, दुर्भावना ओर बुराई करने से अगले जन्म किन्नर बनना पड़ता है

आज भी पुराणों की मान्यता है कि-बुराई करने, बुरा सोचने तथा दुर्व्यवहार करने से अगले जन्म में किन्नर बनना पड़ता है।

भोलेनाथ ने इनकी माँ अरिष्टा को गन्दी, निगेटिव सोच की वजह से इनके बच्चों को हिजड़े होने का शाप दिया था। तथा पश्चाताप हेतु इन्हें धरती पर जन्म लेना पड़ा।

हिजड़े जीवन भर शुभ-मङ्गल कार्य एवं शिशु जन्म के समय बलैया ले-लेकर परिवार के सभी सदस्यों को दुआएं देते हैं। इसके फलस्वरूप, जो न्योछावर मिलती है, उसे पुण्यकार्यो में खर्च करते हैं। यदि ये अड़ जाएं, तो नँगा नाच करने से नहीं चूकते।

ग्रन्थों में वर्णन है कि- किन्नरों का यह अंतिम जन्म होता है।

शतपथ ब्राह्मण (७:५:२:३२) में अश्वमुखी मानव शरीरवाले किन्नर का उल्लेख है।

आम लोगों की पांच इन्द्रिय जागृत रहती हैं लेकिन हिजड़ों की छठी इन्द्रिय चेतनायुक्त होने से उन्हें छक्का कहते हैं।

किन्नर मोह-माया से दूर इनमें बहुत ज्यादा बेशर्मी पाई जाती है, जो अन्य लोगों के लिए कर पाना असंभव है।

शादी-विवाह एवं शुभ कार्यों के समय हिजड़ों की हाजिरी क्यों हैं। जाने किन्नर के धर्म से जुड़े किस्से

ऐसा मानते हैं कि- हिजड़ों के ताली बजाने से जो स्पंदन या वायब्रेशन होता है, उससे घर की नकारात्मक/निगेटिव ऊर्जा दूर हो जाती है।

अमृतम पत्रिका से साभार...इस ब्लॉग में हिजड़ों के बारे में बहुत ही संक्षिप्त जानकारी दी जा रही है-

वृहनलला, हिजड़े या किन्नरों का इतिहास..सन्दर्भ ग्रन्थ- भविष्यपुराण, महाभारत, गरुड़ पुराण, कठोपनिषद आदि 8 ग्रन्थ के अनुसार यह अति प्रतिष्ठित व महत्वपूर्ण आदिम जाति है जिसके वंशज वर्तमान जनजातीय जिला किन्नौर के निवासी माने जाते हैं। संविधान में भी इन्हें किन्नौरा और किन्नर से संबोधित किया गया है।

पौराणिक कथाओं में किन्नर या किंपुरुष देवताओं की एक योनि मानी जाती थी।

5 पांडवों में से एक अर्जुन को भी हिजड़ा बनना पड़ा था।

किन्नर देश’ और ‘हिमाचल’ नामक पुस्तक में उल्लेख है कि-किन्नर कैलाश, मणि महेश एवं मानसरोवर की खोज सर्वप्रथम किन्नरों ने ही की थी।

हिमालय का पवित्र शिखर कैलाश किन्नरों का प्रधान निवासस्थान था। यहीं हिमवंत एवं हेमकूट क्षेत्रों में बसनेवाली मानव जाति, जो ना स्त्री होते है, ना पुरुष। दरअसल ये लिंग या योनि रहित प्राणी हैं।

बौद्ध साहित्य में किन्नर की कल्पना मानवमुखी पक्षी के रूप में की गई है।

मानसार में किन्नर के गरुड़मुखी, मानवशरीरी और पशुपदी रूप का वर्णन है।

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कई देशों का इन्हीं बंदरगाह के रास्ते व्यापार होता था।पुराणों में इसे धरती का वैकुंठ कहा गया है। यह भगवान विष्णु के चार धामों में से एक है। इसे श्रीक्षेत्र, श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र, शाक क्षेत्र, नीलांचल, नीलगिरि और श्री जगन्नाथ पुरी भी कहते हैं। यहां लक्ष्मीपति विष्णु ने तरह-तरह की लीलाएं की थीं। ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार यहां भगवान विष्णु पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतरित हुए और सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए। सबर जनजाति के देवता होने के कारण यहां भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है। पहले कबीले के लोग अपने देवताओं की मूर्तियों को काष्ठ से बनाते थे। जगन्नाथ मंदिर में सबर जनजाति के पुजारियों के अलावा ब्राह्मण पुजारी भी हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक सबर जाति के दैतापति जगन्नाथजी की सारी रीतियां करते हैं। पुराण के अनुसार नीलगिरि में पुरुषोत्तम हरि की पूजा की जाती है। पुरुषोत्तम हरि को यहां भगवान राम का रूप माना गया है। सबसे प्राचीन मत्स्य पुराण में लिखा है कि पुरुषोत्तम क्षेत्र की देवी विमला है और यहां उनकी पूजा होती है। रामायण के उत्तराखंड के अनुसार भगवान राम ने रावण के भाई विभीषण को अपने इक्ष्वाकु वंश के कुल देवता भगवान जगन्नाथ की आराधना करने को कहा। आज भी पुरी के श्री मंदिर में विभीषण वंदापना की परंपरा कायम है।स्कंद पुराण में पुरी धाम का भौगोलिक वर्णन मिलता है। स्कंद पुराण के अनुसार पुरी एक दक्षिणवर्ती शंख की तरह है और यह 5 कोस यानी 16 किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। माना जाता है कि इसका लगभग 2 कोस क्षेत्र बंगाल की खाड़ी में डूब चुका है। इसका उदर है समुद्र की सुनहरी रेत जिसे महोदधी का पवित्र जल धोता रहता है। सिर वाला क्षेत्र पश्चिम दिशा में है जिसकी रक्षा महादेव करते हैं। शंख के दूसरे घेरे में शिव का दूसरा रूप ब्रह्म कपाल मोचन विराजमान है। माना जाता है कि भगवान ब्रह्मा का एक सिर महादेव की हथेली से चिपक गया था और वह यहीं आकर गिरा था, तभी से यहां पर महादेव की ब्रह्म रूप में पूजा करते हैं। शंख के तीसरे वृत्त में मां विमला और नाभि स्थल में भगवान जगन्नाथ रथ सिंहासन पर विराजमान है।मंदिर का इतिहास : इस मंदिर का सबसे पहला प्रमाण महाभारत के वनपर्व में मिलता है। कहा जाता है कि सबसे पहले सबर आदिवासी विश्‍ववसु ने नीलमाधव के रूप में इनकी पूजा की थी। आज भी पुरी के मंदिरों में कई सेवक हैं जिन्हें दैतापति के नाम से जाना जाता है।राजा इंद्रदयुम्न ने बनवाया था यहां मंदिर : राजा इंद्रदयुम्न मालवा का राजा था जिनके पिता का नाम भारत और माता सुमति था। राजा इंद्रदयुम्न को सपने में हुए थे जगन्नाथ के दर्शन। कई ग्रंथों में राजा इंद्रदयुम्न और उनके यज्ञ के बारे में विस्तार से लिखा है। उन्होंने यहां कई विशाल यज्ञ किए और एक सरोवर बनवाया। एक रात भगवान विष्णु ने उनको सपने में दर्शन दिए और कहा नीलांचल पर्वत की एक गुफा में मेरी एक मूर्ति है उसे नीलमाधव कहते हैं। ‍तुम एक मंदिर बनवाकर उसमें मेरी यह मूर्ति स्थापित कर दो। राजा ने अपने सेवकों को नीलांचल पर्वत की खोज में भेजा। उसमें से एक था ब्राह्मण विद्यापति। विद्यापति ने सुन रखा था कि सबर कबीले के लोग नीलमाधव की पूजा करते हैं और उन्होंने अपने देवता की इस मूर्ति को नीलांचल पर्वत की गुफा में छुपा रखा है। वह यह भी जानता था कि सबर कबीले का मुखिया विश्‍ववसु नीलमाधव का उपासक है और उसी ने मूर्ति को गुफा में छुपा रखा है। चतुर विद्यापति ने मुखिया की बेटी से विवाह कर लिया। आखिर में वह अपनी पत्नी के जरिए नीलमाधव की गुफा तक पहुंचने में सफल हो गया। उसने मूर्ति चुरा ली और राजा को लाकर दे दी। विश्‍ववसु अपने आराध्य देव की मूर्ति चोरी होने से बहुत दुखी हुआ। अपने भक्त के दुख से भगवान भी दुखी हो गए। भगवान गुफा में लौट गए, लेकिन साथ ही राज इंद्रदयुम्न से वादा किया कि वो एक दिन उनके पास जरूर लौटेंगे बशर्ते कि वो एक दिन उनके लिए विशाल मंदिर बनवा दे। राजा ने मंदिर बनवा दिया और भगवान विष्णु से मंदिर में विराजमान होने के लिए कहा। भगवान ने कहा कि तुम मेरी मूर्ति बनाने के लिए समुद्र में तैर रहा पेड़ का बड़ा टुकड़ा उठाकर लाओ, जो द्वारिका से समुद्र में तैरकर पुरी आ रहा है। राजा के सेवकों ने उस पेड़ के टुकड़े को तो ढूंढ लिया लेकिन सब लोग मिलकर भी उस पेड़ को नहीं उठा पाए। तब राजा को समझ आ गया कि नीलमाधव के अनन्य भक्त सबर कबीले के मुखिया विश्‍ववसु की ही सहायता लेना पड़ेगी। सब उस वक्त हैरान रह गए, जब विश्ववसु भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए।अब बारी थी लकड़ी से भगवान की मूर्ति गढ़ने की। राजा के कारीगरों ने लाख कोशिश कर ली लेकिन कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका। तब तीनों लोक के कुशल कारीगर भगवान विश्‍वकर्मा एक बूढ़े व्यक्ति का रूप धरकर आए। उन्होंने राजा को कहा कि वे नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति बनाएंगे और अकेले में बनाएंगे। कोई उनको बनाते हुए नहीं देख सकता। उनकी शर्त मान ली गई। लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं। राजा इंद्रदयुम्न की रानी गुंडिचा अपने को रोक नहीं पाई। वह दरवाजे के पास गई तो उसे कोई आवाज सुनाई नहीं दी। वह घबरा गई। उसे लगा बूढ़ा कारीगर मर गया है। उसने राजा को इसकी सूचना दी। अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी तो राजा को भी ऐसा ही लगा। सभी शर्तों और चेतावनियों को दरकिनार करते हुए राजा ने कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया। जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति गायब था और उसमें 3 अधूरी ‍मूर्तियां मिली पड़ी मिलीं। भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे। राजा ने इसे भगवान की इच्छा मानकर इन्हीं अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक तीनों भाई बहन इसी रूप में विद्यमान हैं। वर्तमान में जो मंदिर है वह 7वीं सदी में बनवाया था। हालांकि इस मंदिर का निर्माण ईसा पूर्व 2 में भी हुआ था। यहां स्थित मंदिर 3 बार टूट चुका है। 1174 ईस्वी में ओडिसा शासक अनंग भीमदेव ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। मुख्‍य मंदिर के आसपास लगभग 30 छोटे-बड़े मंदिर स्थापित हैं। पहला चमत्कार... हवा के विपरीत लहराता ध्वज : श्री जगन्नाथ मंदिर के ऊपर स्थापित लाल ध्वज सदैव हवा के विपरीत दिशा में लहराता है। ऐसा किस कारण होता है यह तो वैज्ञानिक ही बता सकते हैं लेकिन यह निश्‍चित ही आश्चर्यजनक बात है। यह भी आश्‍चर्य है कि प्रतिदिन सायंकाल मंदिर के ऊपर स्थापित ध्वज को मानव द्वारा उल्टा चढ़कर बदला जाता है। ध्वज भी इतना भव्य है कि जब यह लहराता है तो इसे सब देखते ही रह जाते हैं। ध्वज पर शिव का चंद्र बना हुआ है।दूसरा चमत्कार... गुंबद की छाया नहीं बनती : यह दुनिया का सबसे भव्य और ऊंचा मंदिर है। यह मंदिर 4 लाख वर्गफुट में क्षेत्र में फैला है और इसकी ऊंचाई लगभग 214 फुट है। मंदिर के पास खड़े रहकर इसका गुंबद देख पाना असंभव है। मुख्य गुंबद की छाया दिन के किसी भी समय अदृश्य ही रहती है। हमारे पूर्वज कितने बड़े इंजीनियर रहे होंगे यह इस एक मंदिर के उदाहरण से समझा जा सकता है। पुरी के मंदिर का यह भव्य रूप 7वीं सदी में निर्मित किया गया। तीसरा चमत्कार... चमत्कारिक सुदर्शन चक्र : पुरी में किसी भी स्थान से आप मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही लगा दिखेगा। इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है। चौथा चमत्कार... हवा की दिशा : सामान्य दिनों के समय हवा समुद्र से जमीन की तरफ आती है और शाम के दौरान इसके विपरीत, लेकिन पुरी में इसका उल्टा होता है। अधिकतर समुद्री तटों पर आमतौर पर हवा समुद्र से जमीन की ओर आती है, लेकिन यहां हवा जमीन से समुद्र की ओर जाती है। पांचवां चमत्कार... गुंबद के ऊपर नहीं उड़ते पक्षी : मंदिर के ऊपर गुंबद के आसपास अब तक कोई पक्षी उड़ता हुआ नहीं देखा गया। इसके ऊपर से विमान नहीं उड़ाया जा सकता। मंदिर के शिखर के पास पक्षी उड़ते नजर नहीं आते, जबकि देखा गया है कि भारत के अधिकतर मंदिरों के गुंबदों पर पक्षी बैठ जाते हैं या आसपास उड़ते हुए नजर आते हैं। छठा चमत्कार... दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर : 500 रसोइए 300 सहयोगियों के साथ बनाते हैं भगवान जगन्नाथजी का प्रसाद। लगभग 20 लाख भक्त कर सकते हैं यहां भोजन। कहा जाता है कि मंदिर में प्रसाद कुछ हजार लोगों के लिए ही क्यों न बनाया गया हो लेकिन इससे लाखों लोगों का पेट भर सकता है। मंदिर के अंदर पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी व्यर्थ नहीं जाती।मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए 7 बर्तन एक-दूसरे पर रखे जाते हैं और सब कुछ लकड़ी पर ही पकाया जाता है। इस प्रक्रिया में शीर्ष बर्तन में सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकती जाती है अर्थात सबसे ऊपर रखे बर्तन का खाना पहले पक जाता है। है न चमत्कार! सातवां चमत्कार... समुद्र की ध्वनि : मंदिर के सिंहद्वार में पहला कदम प्रवेश करने पर ही (मंदिर के अंदर से) आप सागर द्वारा निर्मित किसी भी ध्वनि को नहीं सुन सकते। आप (मंदिर के बाहर से) एक ही कदम को पार करें, तब आप इसे सुन सकते हैं। इसे शाम को स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है।इसी तरह मंदिर के बाहर स्वर्ग द्वार है, जहां पर मोक्ष प्राप्ति के लिए शव जलाए जाते हैं लेकिन जब आप मंदिर से बाहर निकलेंगे तभी आपको लाशों के जलने की गंध महसूस होगी। आठवां चमत्कार... रूप बदलती मूर्ति : यहां श्रीकृष्ण को जगन्नाथ कहते हैं। जगन्नाथ के साथ उनके भाई बलभद्र (बलराम) और बहन सुभद्रा विराजमान हैं। तीनों की ये मूर्तियां काष्ठ की बनी हुई हैं। यहां प्रत्येक 12 साल में एक बार होता है प्रतिमा का नव कलेवर। मूर्तियां नई जरूर बनाई जाती हैं लेकिन आकार और रूप वही रहता है। कहा जाता है कि उन मूर्तियों की पूजा नहीं होती, केवल दर्शनार्थ रखी गई हैं। नौवां चमत्कार... विश्‍व की सबसे बड़ी रथयात्रा : आषाढ़ माह में भगवान रथ पर सवार होकर अपनी मौसी रानी गुंडिचा के घर जाते हैं। यह रथयात्रा 5 किलो‍मीटर में फैले पुरुषोत्तम क्षेत्र में ही होती है। रानी गुंडिचा भगवान जगन्नाथ के परम भक्त राजा इंद्रदयुम्न की पत्नी थी इसीलिए रानी को भगवान जगन्नाथ की मौसी कहा जाता है।अपनी मौसी के घर भगवान 8 दिन रहते हैं। आषाढ़ शुक्ल दशमी को वापसी की यात्रा होती है। भगवान जगन्नाथ का रथ नंदीघोष है। देवी सुभद्रा का रथ दर्पदलन है और भाई बलभद्र का रक्ष तल ध्वज है। पुरी के गजपति महाराज सोने की झाड़ू बुहारते हैं जिसे छेरा पैररन कहते हैं। दसवां चमत्कार... हनुमानजी करते हैं जगन्नाथ की समुद्र से रक्षा : माना जाता है कि 3 बार समुद्र ने जगन्नाथजी के मंदिर को तोड़ दिया था। कहते हैं कि महाप्रभु जगन्नाथ ने वीर मारुति (हनुमानजी) को यहां समुद्र को नियंत्रित करने हेतु नियुक्त किया था, परंतु जब-तब हनुमान भी जगन्नाथ-बलभद्र एवं सुभद्रा के दर्शनों का लोभ संवरण नहीं कर पाते थे।वे प्रभु के दर्शन के लिए नगर में प्रवेश कर जाते थे, ऐसे में समुद्र भी उनके पीछे नगर में प्रवेश कर जाता था। केसरीनंदन हनुमानजी की इस आदत से परेशान होकर जगन्नाथ महाप्रभु ने हनुमानजी को यहां स्वर्ण बेड़ी से आबद्ध कर दिया। यहां जगन्नाथपुरी में ही सागर तट पर बेदी हनुमान का प्राचीन एवं प्रसिद्ध मंदिर है। भक्त लोग बेड़ी में जगड़े हनुमानजी के दर्शन करने के लिए आते हैं। अंत में जानिए मंदिर के बारे में कुछ अज्ञात बातें...* महान सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह ने इस मंदिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था, जो कि उनके द्वारा स्वर्ण मंदिर, अमृतसर को दिए गए स्वर्ण से कहीं अधिक था। * पांच पांडव भी अज्ञातवास के दौरान भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने आए थे। श्री मंदिर के अंदर पांडवों का स्थान अब भी मौजूद है। भगवान जगन्नाथ जब चंदन यात्रा करते हैं तो पांच पांडव उनके साथ नरेन्द्र सरोवर जाते हैं। * कहते हैं कि ईसा मसीह सिल्क रूट से होते हुए जब कश्मीर आए थे तब पुन: बेथलेहम जाते वक्त उन्होंने भगवान जगन्नाथ के दर्शन किए थे। * 9वीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने यहां की यात्रा की थी और यहां पर उन्होंने चार मठों में से एक गोवर्धन मठ की स्थापना की थी। * इस मंदिर में गैर-भारतीय धर्म के लोगों का प्रवेश प्रतिबंधित है। माना जाता है कि ये प्रतिबंध कई विदेशियों द्वारा मंदिर और निकटवर्ती क्षेत्रों में घुसपैठ और हमलों के कारण लगाए गए हैं। पूर्व में मंदिर को क्षति पहुंचाने के प्रयास किए जाते रहे हैं।।। हर हर महादेव शम्भो काशी विश्वनाथ वन्दे।।जय हो!!!! जय सिया राम 🚩🚩🚩🚩

हिन्दुओ के चार प्रमुख धामों में एक जगन्नाथपूरी धाम का इतिहास और मंदिर के दस चमत्कार,,,, By  वनिता कासनियां पंजाब   माना जाता है कि भगवान विष्णु जब चारों धामों पर बसे अपने धामों की यात्रा पर जाते हैं तो हिमालय की ऊंची चोटियों पर बने अपने धाम बद्रीनाथ में स्नान करते हैं। पश्चिम में गुजरात के द्वारिका में वस्त्र पहनते हैं। पुरी में भोजन करते हैं और दक्षिण में रामेश्‍वरम में विश्राम करते हैं। द्वापर के बाद भगवान कृष्ण पुरी में निवास करने लगे और बन गए जग के नाथ अर्थात जगन्नाथ। पुरी का जगन्नाथ धाम चार धामों में से एक है। यहां भगवान जगन्नाथ बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजते हैं। हिन्दुओं की प्राचीन और पवित्र 7 नगरियों में पुरी उड़ीसा राज्य के समुद्री तट पर बसा है। जगन्नाथ मंदिर विष्णु के 8वें अवतार श्रीकृष्ण को समर्पित है। भारत के पूर्व में बंगाल की खाड़ी के पूर्वी छोर पर बसी पवित्र नगरी पुरी उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से थोड़ी दूरी पर है।  आज का उड़ीसा प्राचीनकाल में उत्कल प्रदेश के नाम से जाना जाता था। यहां देश की समृद्ध बंदरगाहें थीं, जहां जावा, सुमात...